गुरुवार, 25 नवंबर 2010

एक जिन्दगी जिसका नाम है 'गोली'



महज दो साल की बच्ची के लिए ये नाम सुनने में आपको जरा अजीब सा लग सकता है। लेकिन तेजस्विनी चौहान को परिवार और मोहल्ले के लोग गोली नाम से बुलाते हैं। हमारे यहां हर बच्चे के नाम के पीछे कहानी होती है, उन अरमानों की कहानी जो पूरी नहीं हुईं, या वो अरमान जो अब भी बाकी हैं, इसलिए आप चाहे किसी राज्य में रहते हों, आपको गलियों और मुहल्ले में कई सचिन कई शाहरुख मिल जाएंगे। लेकिन गोली के नाम के पीछे एक खौफनाक मंजर है जिससे उसके पैदाइश के वक्त उसके माता पिता गुजर रहे थे।





गोली का जन्म कामा हॉस्पीटल में रात के तकरीबन 10 बजकर 30 मिनट पर हुआ। तारीख थी 26 नवंबर 2008। ..जब मुंबई के कामा अस्पताल में तेजस्विनी ने पहली बार आंखें खोली, तब फिजा में बारुद की गंध बसी थी, अस्पताल में अफरातफरी का आलम था, कसाब और अबू इस्माइल अस्पताल में गोलियां बरसा रहे थे। अस्पताल के पिछले दरवाजे से दाखिल दरिंदों ने अस्पताल की टेरेस पर मौजूद कांस्टेबल भानू नारकर और बबन उगाडे का कत्ल कर दिया था। चौथी मंजिल पर मैटरनिटी वार्ड में बिस्तर पर मौजूद गोली ये नहीं जानती थी कि उसके माता पिता उसकी सलामती की दुआएं मांग रहे थे। यही वजह है कि बच्चे का जन्मदिन जहां हर माता पिता के लिए खुशियां और जश्न मनाने का मौका होता है वहीं गोली के माता पिता बेटी के जन्मदिन के बारे में सोच कर ही डर जाते हैं।

गोली सिर्फ दो साल की है, इतनी छोटी सी उम्र में उसने इंसान को हैवान बनते देख लिया .. फिर भी ..नफरत सीखने के लिए ये उम्र छोटी है। हां जिस मां ने बरसती गोलियों के बीच इस गोली को जन्म दिया वो कसाब को माफ करने को कतई राजी नहीं। ये मां का दिल है, इसमें कातिल के लिए न रहम है न मुरव्वत । वैसे आपको बता दें ..गोली की एक और बहन है उसका जन्म तेरह फरवरी को यानी पुणे ब्लास्ट के दिन हुआ। गोली की मां वीजू के लिए एक नहीं . उसके. दोनों बच्चों के जन्मदिन खुशियों लेकर आते हैं तो ग़मगीन भी कर जाते हैं। तेजस्विनी गोली होकर भी सबकी मुंहबोली है, उसे देखकर दहशत की नहीं मुंबई के उस हौसले की याद आती है जिससे मुंबईकरों ने चार दिनों तक दहशत का सामना किया था।

बुधवार, 24 नवंबर 2010

नीतीश पास, राहुल फेल


30 अक्टूबर को राहुल गांधी ने बिहार के भागलपुर में एक सवाल उठाया था कि अगर बिहार चमक रहा है तो बिहारी हरियाणा, पंजाब और दिल्ली में क्या कर रहा है। अब चुनाव के नतीजे बताते हैं कि, राहुल माने या ना माने बिहार चमक रहा है, लेकिन इसे पहले से कहीं ज्यादा चमकाने की जिम्मेदारी अब कांग्रेस को नहीं एक बार फिर नीतीश को मिली है ..एनडीए को मिली है। जब राहुल ने मुंबई जाकर बालासाहेब को चुनौती दी थी तब सियासत के कई जानकार ये कहने लगे थे कि महज 4 घंटे के मुंबई दौरे में राहुल बिहार की गणेश परिक्रमा कर आए हैं। भीड़ से सीधा संवाद कायम करने का उनका हुनर, गरीब और युवाओं पर उनका असर , यूथ आइकन और ईमानदार नेता के तौर पर उनकी छवि के सम्मोहन में ऐसी बंधी पार्टी कि बिहार चुनाव में एक तरह से राहुल के बूते ही मैदान में उतर गई थी कांग्रेस। राहुल पांच बार बिहार के दौरे पर आए, पंद्रह जिलों में घूमे, निर्मली से नवादा तक सिकंदरपुर से शेखपुरा तक बहुत बड़ी तादाद में लोग उन्हें सुनने के लिए भी आए। अवाम ने राहुल को गौर से सुना .. ट्रेजरी घोटाले का मसला उठाते राहुल, केंद्र की योजनाओं का श्रेय लूटने केलिए नीतीश को जमकर खरी खोटी सुनाते राहुल .. लेकिन कहते हैं .. बिहार में रैली में सुनने आई भीड़ अलग होती है और वोट की कतार में लगी भीड़ अलग। नतीजा ये कि राहुल की उम्मीदों के विपरीत.. बिहार में कांग्रेस की सीटें बढ़ी नहीं ..घट गई। लेकिन क्या इस नतीजे से किसी को हैरानी होनी चाहिए। हकीकत ये है कि ये चुनाव नीतीश बनाम लालू था ...राहुल की तमाम कोशिशों और मेहनत के बावजूद ये चुनाव एनडीए बनाम यूपीए नहीं बन पाया। हकीकत ये भी है कि जिस टैलेंट हंट के जरिए राहुल देश भर में अपनी टीम तैयार कर रहे हैं उसकी साख बिहार में है ही नहीं। नहीं तो जिस दिन सोनिया गांधी बिहार के दौरे पर आईं उसी दिन बिहार के यूथ कांग्रेस के मुखिया ललन कुमार के पास से 6 लाख की कैश इलेक्शन कमीशन ने बरामद न की होती। हकीकत ये भी है कि पिछले साल हुए आमचुनाव में बिहार के जिन प्रत्याशियों के पक्ष में राहुल ने रैली की थी उनमें से एक जगह भी जैसे बक्सर, मधुबनी, खगड़िया और अररिया में कांग्रेस जीत दर्ज नहीं कर पाई थी। प्रदेश की 40 में से 37 सीटों पर चुनाव लड़नेवाली कांग्रेस सिर्फ दो जगह सासाराम और किशनगंज मे जीत पाई थी और राहुल इनमें से किसी जगह का दौरा नहीं किया था। तो क्या राहुल चुक गए हैं। सिर्फ एक साल पहले तक राहुल का शुमार देश के सबसे बड़े स्टार कैंपेनर के तौर पर किया जा रहा था। जानकारों की दलील थी कि आम चुनाव के दौरान तमाम बड़े नेताओं की रैली और पार्टी की जीत के बीच का सबसे बेहतर औसत राहुल गांधी का ही है। अगले साल केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आसाम और पांडिचेरी के एसेंबली इलेक्शन हैं तो 2012 में यूपी में । राहुल की तैयारी और नज़र 2014 में होनेवाले आमचुनाव पर है। उनकी हसरत देश का अगला प्रधानमंत्री बनने की है। लेकिन बिहार चुनाव के नतीजे बताते हैं कि राहुल को अभी और ज्यादा मेहनत करने की जरूरत है।

सोमवार, 22 नवंबर 2010

जिसने पाप न किया हो!

राजेश खन्ना की मशहूर फिल्म है रोटी। इस फिल्म में एक औरत को गुनाहों की सजा पत्थरों से मार कर दी जाती है तब गाने के जरिए एक सवाल उठाया गया था कि दूसरों के गुनाह गिनने का हक उन्हें है जिन्होंने कोई पाप न किया हो। अब इस नजारे पर गौर फरमाइए। संसद में घोटालों में घिरी सरकार पर सवाल उठाए जा रहे हैं। सदन में हंगामा करनेवालों में एआईएडीएमके के नेता भी हैं। अब अगर देश को ईमानदारी और नैतिकता का पाट जयललिता से सीखना पड़े तो इससे मुल्क की सियासत के लिए शर्मिंदगी का सबब ही माना जाएगा। अगर आपने संसद के दोनों सदनों में हंगामा करनेवालों माननीयों पर गौर किया हो तो आपको ऐसा लगेगा कि देश में नैतिकता की कापीराइट बीजेपी के ही पास है। लेकिन वहीं हकीकत ये भी है कि घोटाले में येदियुरप्पा के सामने अशोक चव्हाण और सुरेश कलमाड़ी तो शायद पासंग भी नहीं। यही नहीं कांग्रेस कम से कम अशोक चव्हाण और सुरेश कलमाड़ी से इस्तीफा लेने मे तो जरूर कामयाब रही, बीजेपी के बूते का ये भी नहीं। पार्टी के आला नेता येदियुरप्पा को विनती करके बुलाते हैं और वो अपना दूत भेजकर पार्टी को ठेंगा दिखा देते हैं। वाम दलों से नैतिकता की उम्मीद की जाती है। एबी वर्धन जैसे साफ सुथरी छवि वाले नेताओं की तादाद अब देश में इतनी कम रह गई है कि आप इन्हें उंगलियों पर गिन सकते हैं, लेकिन वामदलों का असली चेहरा देखना है तो केरल जाइए। पिनराई विजयन पर घोटालों की सीबीआई जांच कर रही है लेकिन प्रकाश करात उन्हें पूरी तरह बेदाग ही नहीं करार देते, सीबीआई की जांच को भी वो साजिश करार देते हैं। अब अगर देश के सबसे बड़े नेताओं को ही देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी पर भरोसा नही रहा तो अवाम को कैसे होगा। पहले जब भी कभी घोटाले की बात सामने आती थी तो सीबीआई जांच की मांग रखी जाती थी, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि सीबीआई की जांच के लिए सरकार दरख्वास्त कर रही हो और विपक्ष सुनने तक को राजी नहीं। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि कैग की जांच में नाम सामने आने पर भी नेताओं ने इस कदर बेशर्मी का लबादा ओढा हो, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि देश के प्रधानमंत्री को सुप्रीम कोर्ट में अपने किए या नहीं किए की सफाई देनी पड़ी हो, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि सीवीसी की नियुक्ति को लेकर देश के एटार्नी जनरल को सुप्रीम कोर्ट में सफाई देनी पड़ी हो। अब न सीवीसी की साख रही, न सीबीआई की। इस साल बहुत कुछ ऐसा हुआ है जो पहले कभी नहीं हुआ। अब सवाल नीति पर नहीं नीयत पर उठ रहे हैं। और जब सरकार की नीयत पर सवाल उठते हैं तब .. सरकार से अवाम का भरोसा पूरी तरह उठ जाता है।

रविवार, 21 नवंबर 2010

खेल जारी, खेल जारी

पर उपदेश कुशल बहुतेरे ...बीजेपी को ये बात अब जाकर समझ में आई है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ संसद से सड़क तक आवाज बुलंद करना आसान है लेकिन अपनी ही पार्टी के किसी नेता से घोटाले के इल्जाम में इस्तीफा लेना मुश्किल । अशोक चव्हान ने अपने तीन रिश्तेदारों को फ्लैट दिलाकर जो आदर्श अपनाया उसे कर्नाटक में येदियुरप्पा ने बुलंदियों तक पहुंचाया। उन्होंने अपने परिवार को 6 बेशकीमती प्लॉट ही नहीं दिए, अगर पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा के कहे पर गौर करें तो येदियुरप्पा ने बंगलुरु में भीड़ कम करने के नाम पर नाइस प्रोजेक्ट के जरिए कम से कम 30 हजार करोड़ का घोटाला भी किया। और ये तो महज बानगी है उस शख्स के कारनामे की जिसे कर्नाटक में बीजेपी की पहली सरकार बनाने का गौरव हासिल है। हकीकत तो ये है कि उन्होंने अपने दोनों बेटों और बेटी के साथ मिलकर घोटाले का संयुक्त परिवार बना रखा था। और अब आलम ये है कि पार्टी उनसे कुरसी छोड़ने की विनती कर रही है लेकिन येदियुरप्पा हैं कि मानते नहीं। उनकी दलील ये नहीं कि उनपर लगे इल्जाम गलत हैं, उनकी दलील ये है कि अशोक चव्हाण की तरह उनके परिवार ने भी घोटाले की जमीन लौटाने की उदारता दिखाई है, फिर इतनी हायतौबा क्यों। उनकी दलील ये भी है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार के इल्जाम लगने पर इस्तीफा देने की रवायत है ही नहीं, फिर उनसे नई परंपरा शुरु करने को क्यों कहा जा रहा है। उनकी दलील ये है कि उनपर इल्जाम वो लगाए जिसका दामन बेदाग रहा हो, इस नाते इल्जाम लगाने की इजाजत कुमारास्वामी और अनंतकुमार को देने को वो कतई राजी नहीं। कुर्सी के लिए येदियुरप्पा की दीवानगी मुल्क देख चुका है। जब कुमारास्वामी ने कांग्रेस के साथ मिलकर हाल ही में पार्टी के विधायकों को तोड़ने की कोशिश की तो अपनी सरकार बचाए रखने के लिए येदियुरप्पा ने सियासत की हर मर्यादा तोड़ दी। पहली बार सदन में पुलिस का प्रवेश हुआ, नेताओं का चीरहरण हुआ, यहां तक कि नेता प्रतिपक्ष को भी सदन मे प्रवेश की इजाजत नहीं मिली।
येदियुरप्पा का कुर्सी मोह महज सियासी नाटक नहीं है, वो कुरसी नही बचा रहे ..कारोबार बचा रहे हैं। कुरसीसे उनके हटने का मतलब है जायदाद में हर साल हो रही दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की का रुक जाना। सियासत में बदनामी हो तो हो लेकिन कमाई के कारोबार में लगाम येदियुरप्पा को कतई मंजूर नहीं।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

कुछ तो कहो !

हमारे यहां परंपरा में मौनव्रत को मान्यता मिली हुई है। माना जाताहै कि मौन व्रत से आध्यात्मिक शक्ति मिलती है, कई रोगों का निवारण इससे होता है। लेकिन परंपरा ये भी कहती है कि चुपचाप जुर्म सहना मौन रहना नहीं कायरता है, और जुर्म होते देखना लेकिन उससे भी बड़ा जुर्म । अगर सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी को दरकिनार भी कर दिया जाए तो परंपरा के मुताबिक मनमोहन सिंह पाक साफ नहीं ठहरते। उनकी परेशानी ये है कि सियासत में कुछ काम खामोशी से ही अंजाम दिए जाते हैं, लेकिन जब मामला अदालत में आ जाए तो उस खामोशी का सबब हलफनामा देकर बताना पड़ता है। प्रधानमंत्री पर इल्जाम ये नहीं कि राजा की तरह उनका दामन दागदार है, उनपर इल्जाम ये है कि 2 नवंबर 2007 को राजा को इमानदारी की नसीहत देने के बाद वो इस मामले में पूरी तरह खामोश हो गए। वो तब भी खामोश रहे जब राजा का विरोध कानून मंत्रालय से लेकर वित्त मंत्रालय कर रहा था, वो तब भी खामोश रहे जब राजा ट्राय के गठित होने की वजह को ही अपने फ़ैसलों से खत्म कर रहे थे, वो तब भी खामोश रहे जब सुब्रमण्यम स्वामी और सीताराम येचुरी ने उनसे राजा पर कार्रवाई करने की दरख्वास्त की। वो तब भी खामोश रहे जब कैबिनेट सचिव ने मंत्रियों के समूह का टर्म ऑफ रेफरेंस ही बदल डाला। कानूनी नजरिए से देखा जाए तो इनमें से हर एक खामोशी गैरकानूनी थी, अवैध थी। देश के प्रधानमंत्री को अगर सहयोगी दल के दबाव और संविधान में दिए गए अधिकार के इस्तेमाल में से एक को चुनना हो और वो सहयोगी दल के दबाव के आगे झुक जाए तो ये सवाल सिर्फ सियासत का नहीं नैतिकता का भी बनता है। 1993 में जब हर्षद मेहता के सिक्यूरिटी स्कैम की जांच करनेवाली जेपीसी ने देश के वित्तमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह की भूमिका पर सवाल उठाए थे तब उन्होंने इस्तीफे की पेशकश की थी। लेकिन वो घोटाला महज 4 हजार करोड़ का था। राजा का स्पेक्ट्रम घोटाला उससे 45 गुना ज्यादा बड़ा है। लेकिन प्रधानमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट में उनकी पैरवी कर रहे वकीलों की टीम बदलने से ज्यादा अब तक कुछ भी नहीं किया है। और अगर नैतिकता की बात आज की सियासत में करना अजूबा माना जाए तो भी सियासत में खामोशी की कीमत चुकानी पड़ती है। बोफोर्स मामले में क्वात्रोकी के गुनाह पर राजीव गांधी की खामोशी की सजा कांग्रेस को अगले आम चुनाव में करारी शिकस्त के तौर पर चुकानी पड़ी थी। अब जबकि अगले साल तमिलनाडु और यूपी में एसेंबली के इलेक्शन होने हैं क्या कांग्रेस इस खामोशी की कीमत चुकाने को तैयार है। ये सवाल सिर्फ अदालत का नहीं अवाम का भी है।

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

शीला जी को एहसास है मगर...


जब मसला जिंदगी और मौत का हो तो आमलोग ही काम आते हैं। मौत की इमारत क्या गिरी जो जहां था सबकाम छोड़कर जिंदगियां बचाने में जुट गया, लेकिन यहां पहुंचने में पुलिस को एक घंटे , राहत दल को दो घंटे और मुख्यमंत्री को 14 घंटे लगे।
शीला जी को गरीबों के दर्द का एहसास है लेकिन जरा आराम के साथ। हादसा रात के करीब 8 बजे हुआ शीला जी यहां सुबह के करीब दस बजे आईं। 3 मोतीलाल नेहरु मार्ग से लक्ष्मीनगर की दूरी बमुश्किल 14 किलोमीटर होगी लेकिन सीएम साहिबा को यहां आने में 14 घंटे लगे। अभी मुआमले की तफ्तीश बाकी है लेकिन शीलाजी को यकीन है कि हादसे की वजह एमसीडी की लापरवाही है। इसकी वजह सिर्फ ये नहीं कि मौत की इस इमारत को एनओसी एमसीडी ने जारी किया था और यहां पिछले दो महीने से बेसमेंट में पानी भरा था जिसे निकालने की जिम्मेदारी भी एमसीडी की थी, एक वजह शायद ये भी है कि एमसीडी में बीजेपी का बहुमत है। कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों में हुई देरी पर जब सवाल उठे थे तो शीला जी ने बारिश को इसकी वजह बताया था। आसमान से आनेवाली आफत पर भला किसका काबू है। जब गेम्स में घपलों और घोटालों की बात सामने आई तो उन्होंने सीधे तौर पर सुरेश कलमाड़ी को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। जब गेम्स पूरे हो गए तब कामयाबी का श्रेय लेनेवालों में वो सबसे आगे थीं। बस इसी वजह से दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर तेजेंदर खन्ना से उनकी नहीं बनती। खन्ना साहब भी गेम्स की कामयाबी का क्रेडिट लेना चाहते थे लेकिन शीला आगे निकल गईं और वो जी मसोस कर पीछे रह गए। लेकिन लक्ष्मीनगर हादसे के बाद खन्ना साहब पूरी तैयारी के साथ आए। इस नए किरदार में वो दिल्ली के लेफ्टीनेंट गवर्नर कम बिल्डिंग रिसर्च के साइंटिस्ट ज्यादा लग रहे थे। उन्होंने बताया कि यमुना के पास में होने की वजह से लक्ष्मीनगर के इलाके में मौजूद मिट्टी में नमी ज्यादा है और ये कि यहां बननेवाले मकानों में नींव ज्यादा गहरी होनी चाहिए। खन्ना साहब ने ये तो बताया कि यहां क्या किया जाना चाहिए था लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया कि जिस एमसीडी पर हादसे का इल्जाम लगा है वो सीधे तौर पर उनके अधीन काम करती है . उन्होंने ये भी नहीं बताया कि. इन बीते सालों में क्या उन्होंने कभी एमसीडी के अधिकारियों से ये पूछा कि दिल्ली के अवैध कालोनियों में रहनेवाले हजारों परिवार की जिंदगी बचाने के लिए आप क्या कर रहे हैं। आस पास के लोगों का कहना है कि यहां दो महीने से बेसमेंट में पानी भरा था, जाहिर तौर पर इससे इमारत की नींव कमजोर हो गई थी, लेकिन इसके बावजूद मकानमालिक इमारत में खुलेआम अवैध तौर पर पांचवी मंजिल बनवा रहा था। ये सब कुछ एमसीडी के अफसरों की जानकारी के बगैर तो नहीं ही हुआ होगा लेकिन एमसीडी के कमिश्नर का कहना है कि इन्कवायरी के बाद ही हादसे की वजह का पता चल पाएगा।
अब ये तय हो गया है कि इस हादसे की इन्क्वायरी होगी, कमेटी बैठेगी, और हादसे की वजह एक रिपोर्ट की शक्ल में शायद कई साल के बाद सामने आएगी। फिलहाल दिल्ली सरकार और एमसीडी 1369 ऐसी कालोनियों को वैध बनाने के काम में लगी है जहां हर मकान ललिता पार्क के एन-85 की तरह ही है।

शनिवार, 13 नवंबर 2010

दाग अच्छे हैं!

आम तौर पर जिस शख्स का नाम देश के सबसे बड़े घोटाले से जोड़ा जाएगा उसके चेहरे पर शर्मिंदगी और हाव भाव में घबराहट नज़र आएगी, लेकिन राजा तमाम इल्जामों को सियासी साजिश बता कर सिरे से खारिज कर रहे हैं। उनमें न कैग का डर है न सुप्रीम कोर्ट की फटकार की शर्म। आखिर इतनी बेशर्मी उन्होंने पाई कहां से।
अशोक चव्हाण की तरह राजा ये नहीं कहते कि वो पाक साफ हैं और जांच में उनकी बेगुनाही सामने आ जाएगी। वो सुरेश कलमाड़ी की तरह हैं जो हर इल्जाम का जवाब दूसरे पर इल्जाम लगाकर देते हैं। दरअसल राजा सियासत की नई पौध हैं जिसके लिए सियासत अकूत मुनाफे का कारोबार है और कारोबार में मुनाफे की खातिर सब जायज है। राजा जानते हैं कि तमाम नियमों को ताक पर रख कर महज एक घंटे में लाइसेंस का दिया जाना देश की किसी अदालत में वैध करार नहीं दिया जा सकेगा। लेकिन उन्हें इसकी चिन्ता भी नहीं है। उनकी सफाई ये है कि उन्होंने प्रधानमंत्री को हर फैसले से वाकिफ रखा था। सुबूत बताते हैं कि राजा पूरी तरह से ग़लत भी नहीं। सोलिसिटर जेनरल जी ई वाहनवती पिछले साल दिसंबर में अदालत में हलफनामा देकर राजा की तमाम कार्रवाईयों को सही ठहरा चुके हैं। यही नहीं अगर दस जनवरी का राजा का बदनाम प्रेस रीलिज अवैध था, और ये पत्रकारों का नहीं एस टेल के मामले में हाईकोर्ट का कहना है तो इसका क्या जवाब है कि अब तक कैबिनेट ने इस प्रेसरीलिज को रद्द नहीं किया है। सवाल कई हैं। मसलन राजा ने अक्टूबर 2007 के ट्राइ के फैसले के खिलाफ जाकर जब अप्रैल 2008 में स्वान, यूनीटेक और एस टेल को अपनी इक्विटी बेचने की इजाजत दे दी तब कंपनी एफेयर्स मंत्रालय क्य कर रहा था। सवाल ये भी है कि जब राजा ट्राई एक्ट के सेक्शन 11 का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन करते हुए ट्राय को अंगूठा दिखा रहे थे तब कानून मंत्रालय क्या कर रहा था। हकीकत ये है कि राजा शुरु से जानते थे कि वो जो कर रहे थे वो पूरी तरह गैरकानूनी था। वो ये भी जानते थे कि उन्हें इसके लिए कई मुश्किल सवालों का जवाब देना पड़ सकता है लेकिन अगर आप आज भी राजा की पेशानी पर शिकन नहीं देखते तो इसकी वजह ये है कि पेशे से वकील राजा ने इसके लिए पूरी तैयारी पहले ही कर रखी थी। राजा का सबसे बड़ा बचाव ये है कि वो कैबिनेट मंत्री हैं। हमारे यहां कैबिनेट सिस्टम पर सरकार चलती है। इसके मायने ये हैं कि मंत्री के हर फैसले के लिए वो अकेला नहीं पूरी कैबिनेट जिम्मेदार होती है। राजा को ये इत्मीनान है कि खुद को बचाने की नीयत से कैबिनेट राजा को बचाने केलिए एड़ी चोटी का जोर लगा देगी। लेकिन ऐसा नहीं कि राजा की ताकत सिर्फसियासी है। इस महाघोटाले में उन्होंने चंद रियल इस्टेट कंपनियों को तो रंक से राजा बना ही दिया देश की सबसे नामचीन टेलीकॉम कंपनियां जैसे एयरटेल, रिलायंस और वोडाफोन को भी उन्होंने फायदा पहुंचाया है। यही राजा की सबसे बड़ी ताकत है वो ये जानते हैं कि मुसीबत में पड़ने पर वो किन पर भरोसा कर सकते हैं। हां अगर किसी को नहीं मालूम कि वो किस पर भरोसा करे तो वो है मुल्क की अवाम..। वैसे भी सियासत में भरोसा अब बीते जमाने की बात लगने लगी है।