मंगलवार, 13 सितंबर 2011

हॉकी का हक़

स्विस बैंक के एक पूर्व अफसर रूडोल्फ एल्मर का कहना है कि स्विस बैंक में भारत के कई फिल्म स्टार्स और खिलाड़ियों के गुप्त अकाउंट हैं.. जब भी ये खाते सामने आएँगे ये तय मानिए कि इसमें एक भी नाम हॉकी प्लेयर्स का नहीं होगा। वो तब जबकि जिस ओलंपिक में एक अदद पदक के लिए आज हम तरसते हैं उसके इतिहास में टीम इंडिया से बड़ी और बेहतर हॉकी टीम आज तक हुई ही नहीं। 1928 से 1956 तक यानी पूरे 28 साल तक टीम इंडिया ने ओलंपिक हॉकी के 6 गोल्ड लगातार जीते। फिर भी आज आलम ये है कि टीम इंडिया को ओलंपिक में शिरकत करने के लिए क्वालीफायर्स से गुजरना पड़ता है। हॉकी इंडिया और आईएचएफ के झगड़े की वजह से चैंपियन्स ट्राफी की मेजबानी भारत से छीनकर न्यूजीलैड को दे दी गई है, अब खतरा इंटरनेशनल हॉकी फेडरेशन की सदस्यता पर भी है, भारत इस फेडरेशन का पहला गैर यूरोपीयन मेंबर था।

गैरमुनासिब वजहों से बार बार चर्चा में आती आई हॉकी अब कई साल बाद जीत की वजह से सुर्खियों में आई है। ये जीत भी ऐसी जिसका स्वाद ही अलग है। फाइनल में पाकिस्तान को हराकर आई टीम इंडिया के लिए इनामों और तोहफों की बरसात की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। दर्जन भर देशों के खेल.. क्रिकेट में टीम केवर्ल्डकप जीतने पर करोड़ों के इनाम का ऐलान करने वाले मुख्यमंत्री और कॉरपोरेट्स , राष्ट्रीय खेल हॉकी मे टीम की जीत के जश्न में जैसे शरीक ही नहीं। क्रिकेट में इरफान पठान जैसे टीम इँडिया से बाहर हो चुके प्लेयर को भी आईपीएल में महज चंद मैच खेलने के लिए 9 करोड़ मिलते हैं तो वहीं देश का नाम रोशन करनेवाले राजपाल और हलप्पा को चीन में चैंपियन्स ट्राफी में खेलने के लिए  हर दिन के महज 20 डॉलर।
हॉकी के ट्रेजडी ये है कि इसका सबसे शानदार दौर लाइव टीवी की शुरुआत के पहले ही बीत गया। हॉकी में टीम इंडिया की आखिरी सबसे बड़ी जीत 1975 क्वालालम्पुर में वर्ल्डकप की जीत थी। ये मैच दुनिया भर में लाइव दिखाया गया था लेकिन तब भारत में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी का जमाना था और देश भर में मुश्किल से कुछ हजार ही टीवी सेट थे, वो भी देशके सिर्फ सात बड़े शहरों में। वहीं 1983 में जब टीम इंडिया ने क्रिकेट का वर्ल्डकप जीता तब उसके एक साल पहले यानी 1982 में एशियाड के साथ ही छोटा पर्दा रंगीन बन चुका था और देश भर में टीवी का प्रसारण शुरु हो गया था।  कपिल की जीत .. सारे देश की जीत बन गई।
अब लगता है कि जैसे हॉकी का सुनहरा दौर एक बार फिर लौट आया है। लेकिन नोब्स का असली इम्तहान अगले साल की शुरुआत में होगा जब ओलंपिक क्वालीफायर शुरू होंगे।  सिर्फ एक बड़ी जीत हॉकी का भविष्य बदल सकती है,


गुरुवार, 1 सितंबर 2011

महज एक गांव नहीं है रालेगण


इस गांव में अब कोई सोता नहीं
इस गांव में अब कोई रोता नहीं
बात हुनर की नहीं हौसले की है
अब यहां तिनकों में तूफान उतर आया है
जिन आंखों ने कभी रोशनी देखी न थी
उन आंखों में अब सूरज उतर आया है
जिन लबों ने बोलना सीखा न था
उन लबों पर अब शोर उतर आया है
वो सोचते थे कतरों का क्या है आ मिलेंगे दरिया से
इन कतरों में अब समंदर उतर आया है
इस गांव में अब कोई सोता नहीं
अब यहां बेहतरी का ख्वाब उतर आया है
वो सोचते थे ये मोम के परिन्दे हैं, जल जाएंगे
अब सूरज पूछ रहा हैहौसला क्या है
वो सोचते थे ये दीये हैं पनाह मांगेंगे
अब तूफान पूछ रहा है, माजरा क्या है ?
इस गांव में अब कोई सोता नहीं
इस गांव में अब कोई रोता नहीं
मुल्क बनाने का तसव्वुर है यहां
अब हर शहर पूछ रहा है पता क्या है ?

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

अन्ना की तमन्ना

ओमपुरी को यकीन है कि अन्ना देश के सच्चे नायक हैं , उनके अंदर गांधीजी की रूह बसी है। इसलिए वो चाहते हैं कि संसद भवन में अन्ना की तस्वीर लगाई जाए। बस चंद महीने इंतजार कीजिए, चुनाव करीब आएंगे तो ऐसे ही कुछ और भी नए खयालात सामने आएंगे। फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई में पहले ही इस रुमानी एहसास  की झलकियां आप देख चुके होंगे लेकिन अब जो होनेवाला है शायद उसकी कल्पना भी आपने नहीं की होगी।

ओमपुरी की तर्ज पर महेश भट्ट या शेखर कपूर जैसे ट्विटर भक्त किसी भी वक्त ये मांग उठा सकते हैं कि जननायक अन्ना के सम्मान में सरकार स्टांप जारी करे।

अन्ना से प्रभावित फेसबुक फैनक्लब देश में ईमानदारी की अलख जगाने के लिए अब सिक्कों और नोट पर अन्ना की तस्वीर लगाए जाने की मांग रख सकते हैं।

2014 के आमचुनाव और एसेंबली इलेक्शन के वक्त महानगर मुंबई में किसान बाबूराव हजारे मार्ग की मांग सुनने के लिए तैयार रहिए।

अन्ना हजारे के जन्मदिन 15 जून को अन्ना दिवस मनाने की मांग भी उठ सकती है।

अगर अन्ना के मुरीदों की चली तो अन्ना टेक्सटबुक में भी शामिल हो सकते हैं।

बगैर वर्जिश किए 11 दिन में 7किलो वजन कम करने की यूएसपी के साथ डाइटिंग के नए फार्मूले के तौर पर अन्ना अनशन हिट हो सकता है।

 कौन बनेगा करोड़पति की तर्ज पर देश के सबसे ईमानदार शख्स की तलाश अब रियलिटी शोज वाले कर सकते हैं।

मशहूर ऑन लाइन गेम एंग्री बर्ड्स की तर्ज पर  एंग्री अन्ना नाम का गेम आप इंटरनेट पर खेल सकते हैं। नेताओं की मुफ्त मिजाजपुर्सी का ये गेम खासी शोहरत बटोर रहा है।

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

गुलिवर अन्ना और लिलिपुट की सियासत

जोनाथन स्विफ्ट की एक मशहूर कहानी है गुलिवर्स ट्रैवल्स ..1726 में पहली बार प्रकाशित हुआ ये उपन्यास कभी प्रिंट से बाहर नहीं हुआ। ये एक सैलानी की कहानी है जो समंदर से भटक कर 6 इंच के इंसानों की बस्ती लिलिपुट में आ जाता है। इंसानी फितरत पर लिखा गया 385 साल पुराना आयरिश अफसाना अब दिल्ली की हकीकत बन गया है। गुलिवर की जगह अन्ना को और लिलिपुट के बाशिन्दों की जगह सरकार और नौकरशाहों को रखकर देखिए .सिर्फ .ईमानदारी का होना या नहीं होना इंसान के कद को कहां से कहां पहुंचा देता है। दिल्ली पुलिस टीम अन्ना पर कानून तोड़ने के इल्जाम लगा रही है,  फिर भी रामलीला मैदान में मौजूद अवाम अनशन के दसवें दिन अन्ना के दशावतार रुप का नमन कर रही है।  लोकसभा में पहले पीएम फिर नेता प्रतिपक्ष और फिर सदन के इतिहास में पहली बार स्पीकर ने अपनी सीट से उठकर उनसे अपना अनशन तोड़ने की अपील की। ये है लिलिपुट की सियासत में गुलिवर अन्ना की ताकत। सरकार को लगता है कि ये ताकत अन्ना के मकसद की ताकत है, लेकिन अन्ना जानते हैं कि ये ताकत उस भरोसे की है जो उन्हें अवाम पर और अवाम को उन पर है।
सरकार को लगता है कि जो बात उसके आश्वासन से नहीं बनी वो बात संसद की अपील से बन जाएगी, लेकिन अन्ना को यकीन है कि अब वो मैं नहीं.. हम हैं, जनलोकपाल के जननायक के तौर पर वो हम भारत के लोग की आवाज  हैं। और संविधान की प्रस्तावना के अल्फाज रामलीला मैदान से गूंज बनकर  नुमाइंदों तक जाएगी तो उसमें फरियाद नहीं फरमान होगा, अर्चना नहीं गर्जना होगी, याचना नहीं आदेश होगा। ये साल क्रांतियों का साल है। इजिप्ट में चमेली की चिंगारी में मुबारक की सरकार झुलस गई, लीबिया में गदर कामयाब रहा है और सीरिया  में कामयाब होनेवाला है।  हमारे यहां लोकतंत्र है, इसलिए बदलाव की उम्मीद और संभावना यहां सबसे ज्यादा है। सरकार को इल्म हो न हो, अन्ना को पता है कि अवाम की उम्मीदों और बदलाव की संभावनाओं से छेड़छाड़ करने का जोखिम सरकार नहीं ले सकती। 


बुधवार, 24 अगस्त 2011

73 का तिलिस्म

उम्मीद युवाओं से और भरोसा बुजुर्गों पर
 क्या ये महज इत्तेफाक है कि 1942 के आंदोलन के वक्त बापू की उम्र थी 73 साल
 1975 के आंदोलन की वक्त जेपी की उम्र थी 73 साल
और  रामलीला मैदान में अनशन करते अन्ना की उम्र भी है 73 साल
यही नहीं सरकार के संकटमोचक के तौर पर सामने आए प्रणब दादा की उम्र  है 76 साल
बात इतिहास की करें या सियासत की.. जोश की जगह देश ने हमेशा तजुर्बे को ज्यादा अहमियत दी है। परिवार की तरह ही देश को बनाने और संवारने में भी बुजुर्गों की भूमिका हमेशा से अहम रही है। आज भी ज्यादातर घरों में तमाम अहम फैसले बड़े बुजुर्ग ही लिया करते हैं। शायद यही वजह है कि ..आपको रामलीला मैदान में कई ऐसे लोग मिलेंगे जिन्हें कभी अन्ना की खामोशी में तो कभी अन्ना की तल्खी में अपने पिता का अक्स नजर आता है
आपको ऐसे बच्चे मिलेंगे जिन्हें रामलीला मैदान में भाषण देते या फिर आराम करते अन्ना में आज भी खादी की धोती और कुर्ता पहननेवाले अपने दादाजी नजर आते हैं।
भोले अन्ना.. भावुक अन्ना .. जिद्दी अन्ना.. खामोश अन्ना.. दरअसल हमारे परिवार का वो बुजर्ग है जिससे हम चाहकर भी कभी अलग नहीं हुए और अगर कभी उससे दूर हुए भी तो ये दूरी देर तक सालती रही है खलती रही है।  देश और दादा के साथ अवाम का यही नाजुक रिश्ता अन्ना की सबसे बड़ी ताकत है। सियासत को इल्म हो न हो, हकीकत ये है कि हमारे यहां एक ईमानदार बुजुर्ग  न तो कमजोर है और न ही साधारण, क्योंकि वो सिर्फ एक घर का नहीं हर घर का बाशिन्दा है।

द ग्रेट अन्ना शो

कोलकाता के पार्कस्ट्रीट में अन्ना हजारे के समर्थन में स्कूली बच्चों ने एक दिन का उपवास रखा।
श्रीनगर के शेर ए कश्मीर पार्क में पैंथर्स पार्टी के लोग जमा हुए और उन्होंने अन्ना के समर्थन में नारेबाजी की
पटना में  भारी बारिश के बीच कारगिल चौक पर लोगों ने अन्ना के समर्थन में धरना दिया 
तस्वीरें तीन नजारा एक
कोलकाता, श्रीनगर और पटना की तस्वीरें बताती हैं कि अन्ना के साथ स्कूल के बच्चे हैं सियासी पार्टियां हैं और आम लोग हैं। लेकिन ये तस्वीरें सिर्फ इतना ही नहीं बतातीं।
तस्वीरें बताती हैं कि अहमदाबाद से बेंगलुरू तक गोरखपुर से रायपुर तक अन्ना का आंदोलन लोगों को अपनी ओर खींच रहा है। अब सवाल है क्यों। दरअसल अन्ना को पता हो न हो, वो इस वक्त सबसे बड़े शो बन चुके हैं। 120 करोड़ के इस देश में टीवी पर रेडियो पर, फेसबुक पर ट्वीटर पर चौबीसों घंटे जारी है द ग्रेट अन्ना शो । 1998 में आई हॉलीवुड की फिल्म द ट्रूमन शो की तरह का एक ऐसा अनोखा अद्भुत रियलिटी शो जिसके किरदार को भी नहीं मालूम कि वो महज एक शख्स नहीं एक किरदार है जो हजारों कैमरों की रोशनी में दुनिया भर में  चौबीसों घंटे लाइव है। वो नहीं जानता कि वो लाखों लोग जिसे उसने कभी नहीं देखा, और वो लाखों लोग जिनसे वो शायद कभी नहीं मिलेगा उसकी जिन्दगी के एक एक पल को सिर्फ देख और महसूस नहीं कर रहे वो उसे  हर पल  जी रहे हैं। वो नहीं जानता कि उसका सोना खबर है, उसका जागना खबर है। वो नहीं जानता कि वो हर पल खबर बन रहा है, वो हर पल खबर बना रहा है।
देश भर में अन्ना के नाम पर जमा लोगों की ये भीड़ उन लोगों की नहीं है जिन्होने जिन्दगी में रिश्वत न देने की कसम खाली है, ये तस्वीर उन लोगों की है जिनकी रगों में द ग्रेट अन्ना शो हर पल रोमांच भर रहा है। ये तस्वीरें बताती हैं कि हम भारत के लोग सिर्फ क्रिकेट और बॉलीवुड के बारे में एक सी राय नहीं रखते। करप्शन भी हम सबकी साझी याद्दाश्त में रच बस गया है। ये वो रिसता नासूर है जिसकी टीस को महसूस करने के लिए कहीं और जाने की नहीं बस अपनी रूह में झांकना ही काफी है।
द ग्रेट अन्ना शो इस वक्त का सुपरहिट शो है जिसे देखने को ,और इस  शो में किरदार बनने को 55 लाख से ज्यादा लोग बेताब नजर आ रहे हैं।  लेकिन द ग्रेट अन्ना शो के साथ एक परेशानी भी है। ये  शो दरअसल शेर की सवारी कीतरह है जिसमें रोमांच तभी तक है जब तक आप इस पर सवार हैं। यू सर्टिफिकेट वाला ये शो हर कोई देख तो सकता है लेकिन इसे काबू में कोई नहीं कर सकता। दरअसल इस शो को द एंड के लिए तैयार ही नहीं किया गया। इस शो में हैप्पी एन्डिंग की शायद ज्यादा गुंजाइश भी नहीं, न ही द एंड पर  फिर मिलेंगे का वादा है। 

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

युवाओं के ‘अन्ना’

अन्ना के आंदोलन में शामिल लोगों पर नजर डालिए ..इस आंदोलन में सबसे बड़ी तादाद युवाओं की है। नई सुबह का इंतजार करती  देश की आधी आबादी, वो आबादी जिसने आजादी की जंग को देखा नहीं, सिर्फ उसके बारे में सुना है, वो आबादी जिसने इमरजेंसी और जेपी के आंदोलन के बारे में सुना भी है और पढ़ा भी है। तालीम से लैस और सियासत से बेजार, बेसब्र ये पीढी देश में बीते दस साल की तरक्की की उस रफ्तार से भी मुतमईन नहीं जिसका शुमार देश और दुनिया की सबसे तेज तरक्की के तौर पर किया जा रहा है।

 भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की मुहिम से उसे अपने हिस्से की जमीन मिलने की आस बंधी है,  मुट्ठी में आसमान भरने का हौसला मिला है। युवाओं को ख्वाब देखने की आदत होती है,  उन्हें पूरा करने की ताकत भी होती है, अन्ना उसे नई सुबह के लिए इंतजार करने को नहीं कह रहे, वो उसे अपने हिस्से का सूरज उगाना सिखा रहे हैं।


 अगर समूचे देश के युवा अगर अन्ना को उम्मीद की नजर से देख रहे हैं तो इसकी वजह शायद ये है कि आज के युवा को हक और इंसाफ के इंतजार में सारी उम्र गंवाना मंजूर नहीं, उसे रिश्वत और रसूख का नंगा खेल गवारा नहीं, उसे कलमाड़ी और राजा जैसे नुमाइंदे कबूल नहीं.. वो हर ओर नजर दौड़ाता है लेकिन मसीहाओं के इस देश में आज मसीहा के तौर पर  अन्ना के सिवाय उसे कोई नजर नहीं आ रहा।  उसकी नाराजगी उसकी बेबसी और उसकी बेसब्री अन्ना के लिए आस्था में तब्दील होगई है। सरकार को हो न हो, अन्ना को इस भरोसे की ताकत का बेहतर तौर पर अंदाजा है। हकीकत ये है कि आजादी के बाद देश की युवा शक्ति का इस्तेमाल जेपी आंदोलन ने भी किया और वीपी सिंह ने भी, लेकिन 1977 का और 1990 का युवा आज भी छले जाने के एहसास से जूझ रहा है। आज का सबसे अहम सवाल ये है कि क्या अन्ना का आंदोलन कुछ अलग साबित होगा।

बुधवार, 17 अगस्त 2011

अन्ना और इतिहास का आइना

सरकार को अब जाकर एहसास हो रहा है कि कैद में अन्ना नहीं वो खुद है। अब सवाल है कि ऐसा क्या किया अन्ना ने कि सरकार इस कदर त्रस्त और पस्त नजर आने लगी है। तिहाड़ के पास उमड़े जनसैलाब को देखिए और ये सवाल खुद से पूछिए कि  आज कैद में कौन हैं अन्ना या सरकार ?अगर हो सके तो इंडिया गेट जाइए और महसूस करने की कोशिश कीजिए कि  आज लाचार कौन है अन्ना या सरकार ?
हकीकत ये है कि वैसा कुछ नहीं हो रहा जैसासरकार चाहती थी, हकीकत ये है कि  सब कुछ वैसा ही हो रहा है जैसा अन्ना चाहते थे। इस जनसैलाब को देखिए आपको एहसास होगा कि ताकत उस भरोसे में होती है जो अवाम को अपने नुमाइंदे पर होती है।  कल तक ये भरोसा हुकूमत पर था अब अन्ना पर है। अब सवाल ये है कि ऐसा क्या किया अन्ना ने कि उनके कैद होने के बाद से ही वो रिहा और सरकार गिरफ्तार नजर आने लगी। दरअसल अन्ना जानते हैं कि आज के भारत की सामूहिक याद्दाश्त में दो घटनाएं बसी हैं।  एक राष्ट्रीय आंदोलन और दूसरी 1975 की इमरजेंसी। जंग का ताल्लुक अवाम की आजादी से है तो इमरजेंसी का तानाशाही से। आजादी की जंग उन्हें याद दिलाती है कि देश के लिए क्या करना चाहिए , वहीं इमरजेंसी उन्हें याद दिलाती है कि क्या उन्हें हरगिज गवारा नहीं।  ये महज इत्तेफाक नहीं कि अन्ना बार बार देश की दूसरी आजादी की बात करते हैं। वो बार बार तानाशाही की याद दिलाते हैं। अन्ना को इतिहास की आवाज और अवाम के मिजाज दोनों का पता है। अगर  इंडिया गेट या तिहाड़ के गेट के करीब अन्ना के समर्थन में लोगों का सैलाब आपको हैरान कर रहा है तो आपको बता दें कि देश में ऐसा पहली बार नहीं हुआ। देश एक बार फिर 36 साल पुराने इतिहास को दोहरा रहाहै।  अब सवाल ये है कि ..ऐसा क्या किया है अन्ना ने कि लोग उन्हें सुनने को,  उनकी हर  बात मानने को इस कदर बेताब नजर आ रहे हैं।  दरअसल अपने आचरण , अनशन और आंदोलन  से कहीं ज्यादा अपने तेवर से अन्ना लोगों को जेपी की याद दिला रहे हैं। वो अवाम को अपनी ताकत और सरकार को  उसकी कमजोरी का उसी तरह एहसास दिला रहे हैं जैसे 36 साल पहले जेपी ने किया था। जेपी की तरह ही अन्ना लोगों को ये बताने में कामयाब रहे हैं कि ..ताकत सरकार में नहीं अवाम में होती है। अन्ना ने साबित कर दिया है कि ताकत खाकी में नहीं होती लाठी में नहीं होती, खादी में नहीं होती कुरसी में नहीं होती।  अब सवाल ये है कि अन्ना को ये ताकत कहां से मिली। जवाब है देश के इतिहास से, देश की परंपरा से ..आजादी की जंग से। इसे मुकम्मिल तौर पर समझने के लिए हमें इतिहास के दो लम्हों पर गौर करना होगा। पहला वाकया है 1930 का।  12 मार्च 1930 को जब गांधी जी ने नमक आंदोलन शुरु किया तब मसला सिर्फ नमक बनाने का नहीं आजादी हासिल करने का था। एक आने के नमक के लिए कानून तोड़ने का मतलब सिर्फ नमक बनाने का हक हासिल करना नहीं था अंग्रेजी हुकूमत को ये बताना भी था कि जिस कानून की बुनियाद पर आपकी हुकूमत टिकी है उसे मानने से हम पूरी तरह से इनकार करते हैं। दुनिया के किसी भी देश की  आजादी की जंग में अवाम की भागीदारी के लिए इससे मुफीद शायद ही कोई दूसरी मिसाल हो ।
45 साल बाद कुछ ऐसा ही किया जेपी ने। इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले को जब इंदिरा गांधी ने मानने से इनकार कर दिया तब जेपी ने देश के युवाओं को स्कूल कालेज छोड़ने और सरकारी कानून तोड़ने का आह्वान किया।25 जनवरी 1975 के दिन जब  पटना के गांधी मैदान में जेपी ने रामधारी सिंह दिनकर की कविता सिंहासन खाली करो कि जनता आती है का पाठ किया तो उन्हें सुनने के लिए एक लाख से ज्यादा लोग आए थे। उसी शाम इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी का ऐलान कर दिया। 1930 से संजोई और 1942 में इस्तेमाल हुए अवाम की ये ताकत सामने आई तो इंदिरा सरकार को घुटने टेकने पड़े।
दरअसल अन्ना ने जब जनलोकपाल बिल की मांग उठाई तब सरकार को लगा कि ये महज एक विधेयक का मसला है जिसे बातचीत से घुड़की से या धमकी से हल किया जा सकता है। सरकार ये नहीं समझ पाई कि अन्ना की जंग सिर्फ संसद से एक बिल पारित करवाने की नहीं थी, असली मसला था अवाम को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोगों को गोलबंद करना, उन्हें एकजुट करना। 
जब सरकार के मंत्री और प्रवक्ता ये सोच कर खुश हो रहे थे कि उन्होंने अन्ना को कठघरे में खड़ा कर सरकार को जीत दिला दी है तब अन्ना को एहसास था कि सरकार की वजह से  उनके मुरीदों की तादाद में हररोज इजाफा होता जा रहा है।
 अन्ना जानते थे कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी मुहिम जब तक सरकारी और सिविल सोसाइटी के बिल पर जारी विवाद में फंसी रहेगी तब तब उनके साथ जितने लोग होंगे शायद उतने ही उनके खिलाफ भी लेकिन अगर लोकपाल बनाम जनलोकपाल की जंग अन्ना बनाम सरकार में जंग तब्दील हो जाती है तो बाजी पलट जाएगी। और ऐसा ही हुआ । विवादों से परे अन्ना और घोटालों में घिरी सरकार के बीच जब चुनने की बारी आई तो अवाम को अन्ना के पास आना ही था।
सरकार को हो न हो अन्ना को इतिहास का और अवाम की इस ताकत का बेहतर तौर पर पता था, सरकार को इल्म हो न हो वो इसके लिए पहले से तैयार थे, उन्हें गिरफ्तार कर सरकार ने उनकी जीत और अपनी शिकस्त पक्की कर दी। 

बुधवार, 20 जुलाई 2011

सचिन ..बस नाम ही काफी है!

जिन्होंने ब्रेडमैन को कभी खेलते नहीं देखा, लेकिन सचिन को देखा है, अब वो भी जानते हैं कि ब्रेडमैन ..सचिन की तरह खेलते थे। क्रिकेट कभी भारत में सिर्फ एक खेल नहीं रहा, लेकिन बीते 22 साल से .. इस खेल के लिए अगर देश की आधी आबादी दफ्तर से घर तक झूठ बोलती आई है तो इसकी शायद सबसे बड़ी वजह हैं सचिन। सवा सौ करोड़ के इस देश में अगर कोई एक शख्स है जो हर घर में रहता है. हर दिल में बसता है, उसकी खुशी समूचे देश की खुशी, और उसका गम सारे देश का गम बन जाता है तो वो है सचिन।  ये वो शख्स है जिसके  सौवें शतक को लार्ड्स में  बनते देखने की हसरत ब्रायन लारा रखते हैं। ये वो शख्स है जिसके इंगलैंड आने की खबर से ही टेस्ट मैच से लेकर वन डे तक सारी सीट फुल हो जाती है। ये वो शख्स है जिसे हारते हुए कोई नहीं देखना चाहता, सामने खड़ी अपोजिशन टीम भी नहीं। ये वो शख्स है जो जुबान से नहीं सिर्फ बल्ले से बातें करता है।वो भी कुछ इस तरह कि दुनिया जिन गेंदबाजों को सलाम करती है, वो गेंदबाज भी सचिन के नाम से डरते हैं। क्रिकेट पहले भी खेला गया है, क्रिकेट आगे भी खेला जाता रहेगा।लेकिन इस खेल में सचिन होने के मायने ये हैं कि जिन्होंने कभी क्रिकेट नहीं खेली, नहीं देखी वो भी जानते हैं कि ये वो खेल है जो सचिन खेलता है।  अब.. इस सवाल का जवाब भी मिल गया है कि अगर भगवान क्रिकेट खेलते तो किस तरह खेलते।
सचिन ..बस नाम ही काफी है।



शनिवार, 5 मार्च 2011

क्वात्रोकी खुश हुआ !

मुझे नाज़ है कि मैंने भारत के औद्योगिक विकास में योगदान दिया है, यहां मेरे तीन बच्चों की पैदाइश हुई है
ये बयान किसी नामचीन बिजनेसमैन का नहीं, भारत में बोफोर्स तोप के दलाल ओट्टावियो क्वात्रोकी का है। क्वात्रोकी पर 1987 में बोफोर्स तोप सौदे में 41 करोड़ की दलाली का इल्जाम है, उसे देश की अदालत में पेश करने के नाम पर सीबीआई ने 250 करोड़ खरच डाले, लेकिन वो कभी देशकी अदालत में पेश नहीं हुआ। इटली की एक खाद कंपनी का ये नुमाइंदा कैसे स्वीडेन की तोप कंपनी और भारत की सेना के बीच हुए करार में दलाल बन गया ये कहानी भी कम दिलचस्प नहीं। दरअसल दलाली क्वात्रोकी का पेशा था। एशिया में स्नैमप्रोगेती के दलाल के तौर पर उसने 16 मुश्किल साल बिताए थे, लेकिन उसकी किस्मत तब बदल गई जब 1974 में उसकी मुलाकात राजीव और सोनिया गांधी से हुई। तब राजीव की शादी को सिर्फ छह साल बीते थे। क्वात्रोकी को निजी रिश्ते को मुनाफे के कारोबार में तब्दील करने में महारत हासिल थी। 1980 से 1987 के बीच उसने स्नैमप्रोगेती के लिए एक दो नहीं पूरे साठ बड़े कांट्रेक्ट हासिल किए। अब भारत में खाद के करार का मतलब क्वात्रोकी बन गया था.. आलम ये था कि जब क्वात्रोकी किसी मंत्रालय में दाखिल होता था तो नौकरशाह और नेता अपनी कुरसी से उठ कर खड़े हो जाते थे  । और जो क्वात्रोकी की मुखालफत करते थे, उन्हें इसकी कीमत फौरन चुकानी पड़ती थी। नवल किशोर शर्मा इसी वजह से पेट्रोलियम मिनिस्टर से पार्टी महासचिव बना दिए गए, पी के कौल कैबिनेट सचिव से राजदूत बना दिए गए तो गेल के चेयरमैन एच एस चीमा को अपने पद से हटना पड़ा। लेकिन दलाली के जरिए ज्यादा से ज्यादा रकम कमाने की क्वात्रोकी की भूख अभी बाकी थी। 15 नवंबर 1985 को उसने बोफोर्स कंपनी के साथ एक करार किया। इस करार के मुताबिक क्वात्रोकी भारत में तोपों के सौदे में बोफोर्स कंपनी की मदद करनेवाला था और बदले में उसे सौदे की कुल रकम का 3 फीसदी बतौर कमीशन मिलना था। लेकिन ये कांट्रैक्ट 1 अप्रैल 1986 को खत्म हो जाना था। क्वात्रोकी के दबाव की वजह से ये सौदा 24 मार्च 1986 को हुआ। जैसा कि तय हुआ था..3 सितंबर 1986 को बोफोर्स ने क्वात्रोकी की कंपनी ए ई सर्विसेज को 7.3 मिलियन डॉलर का भुगतान ज्यूरिच के नॉर्डफिनांज बैंक के खाता नंबर 18051-53   में कर दिया। यहां से रकम किस तरह पनामा, जेनेवा, चैनेल आइलैंड और गुएरनसी में क्वात्रोकी और उसकी बीवी के अकाउंट में गया इसका सारा ब्योरा सीबीआई के पास मौजूद है। दिलचस्प बात ये है कि 16 अप्रैल 1987 को स्वीडेन के रेडियो डाइगेन्स इको ने बोफोर्स सौदे में दलाली का खुलासा कर दिया लेकिन सीबीआई ने इस मामले में केस दर्ज किया पूरे तीन साल बाद यानी 22 जून 1990 को। इसके बाद भी क्वात्रोकी अगले तीन साल तक भारत में ही रहा। क्वात्रोकी तब भारत छोड़कर चला गया, जब स्विटरजरलैंड की सरकार ने भारत सरकार के पास बोफोर्स सौदे में दलाली के तौर पर क्वात्रोकी के खाते में जमा रकम का ब्योरा भेजा। विपक्ष की मांग के बावजूद नरसिंहाराव सरकार ने क्वात्रोकी का पासपोर्ट जब्त करने की जहमत नहीं उठाई और  30 जुलाई 1993 को क्वात्रोकी भारत छोड़कर हमेशा के लिए चला गया। जिस सीबीआई को क्वात्रोकी को पकड़कर अदालत के सामने पेश करना था, उसी सीबीआई ने दिसंबर 2005 में लंदन जाकर ब्रिटेन की सरकार से क्वात्रोकी को  जब्त खाते से रकम निकालने देने की गुहार लगाई।  तीन साल बाद फिर इसी सीबीआई ने इंटरपोल से क्वात्रोकी के खिलाफ रेडकार्नर नोटिस वापस लेने की फरियाद की। अब तक सारी दुनिया के लिए मुजरिम  क्वात्रोकी अब सिर्फ भारत सरकार का मुजरिम रह गया था। आखिरी कसर सीबीआई ने पिछले साल 16 दिसंबर को अदालत में  क्लोजर रिपोर्ट पेश कर पूरी कर दी। अब क्वात्रोकी सीबीआई का शुक्रगुजार है जिस एजेंसी पर अदालत और सरकार ने 21 साल तक क्वात्रोकी के खिलाफ तफ्तीश करने की जिम्मेदारी सौंपी उसी एजेंसी ने अदालत में एक भी दिन पेश हुए बगैर उसकी रिहाई के सारे इंतजाम किए। रिश्वत और रसूख की ऐसी नायाब मिसाल दुनिया में और कोई नहीं।

थॉमस और न्यूटन


फिजिक्स में एमएससी करनेवाले थॉमस फिजिक्स में न्यूटन के गति के उस सिद्धांत को भूल गए कि प्रत्येक क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। सीवीसी के पद पर अपनी नियुक्ति को उन्होंने इस आधार पर सही ठहराया था कि जब दागी नेता सांसद बन सकते हैं तो वो सीवीसी क्यों नहीं।  अदालत में सासंदों की नजीर देनेवाले थॉमस अब संवैधानिक पद की हसरत रखनेवाले हर नौकरशाह के लिए खुद एक नजीर बन गए हैं।
लेकिन 60 साल के पोलायिल जोसेफ थॉमस का अदालत में अपनी सफाई में अजीबोगरीब नजीर देने का ये पहला मामला नहीं। 1973 बैच के केरल कैडर के इस आईएस अफसर पर जब मलेशिया से ऊंची कीमत पर पामोलिन की खरीद का इल्जाम लगा तो उनकी सफाई ये थी कि पिछले कई सालों में उन्हें दी गई पदोन्नति ये साबित करती है कि उनपर लगे इल्जाम बेबुनियाद हैं। लेकिन चंद हफ्ते पहले.. बीस साल पुराने इस मामले में  उन पर मुकदमा चलाए जाने की इजाजत देकर सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि करियर में मिली तरक्की किसी की बेगुनाही का ठोस सबूत करार नहीं दिया जा सकता।

अगर आप सीवीसी की वेबसाइट पर उनके बायोडाटा पर नजर दौड़ाएं तो यहां उन 13 पदों के नाम दिए गए हैं जिन पर सीवीसी बनने से पहले थॉमस ने काम किया था, इसमें कोचीन के सब कलेक्टर, एरनाकुलम के डीसी और मछली विभाग के डायरेक्टर तक का नाम दिया गया है  लेकिन यहां फूड एंड सिविल सप्लाई के सचिव के तौर पर उनके काम का कोई ब्योरा नहीं जिस पद पर रहते हुए उन्होंने मलेशिया से कथित तौर पर पामोलिन की खरीद का आदेश दिया था। थॉमस की परेशानी ये है कि सीवीसी के पद से हटने के बाद सीबीआई उनसे टूजी घोटाले में उसी सवाल का जवाब मांगेगी जिसका जवाब देने में नाकाम रहने की वजह से थॉमस के पहले के टेलीकॉमसचिव  सिद्धार्थ बेहूरा फिलहाल जेल की हवा खा रहे हैं। यही वजह है कि मीडिया के तीखेवार, विपक्ष के प्रहार और सरकार की मनुहार के बावजूद थॉमस पद से इस्तीफा देने को राजी नहीं, उनकी नियुक्ति को अवैध ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी नहीं। दरअसल ..सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को ये पता लगाने को कहा है कि जिन कंपनियों ने लाइसेंस मिलने के बाद भी मोबाइल सेवा शुरू नहीं की उनपर टेलीकॉम विभाग ने शो काउज नोटिस क्यों जारी नहीं किया। बेहूरा जहां 9 जनवरी 2009 से 30 सितंबर 2009 तक टेलीकॉम सचिव थे, वहीं थॉमस 1 अक्टूबर 2009 से सितंबर 2010 तक। दरअसल मंत्रालय शो काउज नोटिस तभी जारी करता है जब उस पर टेलीकॉम सचिव के दस्तखत हों और हकीकत ये है कि बेहुरा की तरह ही थॉमस ने भी अवैध तौर पर 2जी लाइसेंस हासिलकरनेवाली कंपनियों के खिलाफ नोटिस जारी करने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। कई लोग विपक्ष के इस आरोप को तवज्जो देते हैं कि सरकार ने थॉमस की नियुक्ति टूजी घोटाले के चंद अहम किरदारों को बचाने के लिए की, लेकिन हकीकत ये है कि थॉमस सबसे पहले और अगर जरुरत पड़ी तो सिर्फ खुद को इस घोटाले से बचाने की जुगत में लगे थे। अब थॉमस की नियती ये है कि कभी सीबीआई के अधिकारियों को उनसे मिलने के लिए एप्वाइंटमेंट लेना होता था अब उन्हें हर दिन उस पल का इंतजार करना है जब सीबीआई दफ्तर में पेश होने के लिए उन्हें नोटिस दी जाएगी , वो भी एप्वाइंटमेंट लिए बगैर।