शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

अन्ना की तमन्ना

ओमपुरी को यकीन है कि अन्ना देश के सच्चे नायक हैं , उनके अंदर गांधीजी की रूह बसी है। इसलिए वो चाहते हैं कि संसद भवन में अन्ना की तस्वीर लगाई जाए। बस चंद महीने इंतजार कीजिए, चुनाव करीब आएंगे तो ऐसे ही कुछ और भी नए खयालात सामने आएंगे। फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई में पहले ही इस रुमानी एहसास  की झलकियां आप देख चुके होंगे लेकिन अब जो होनेवाला है शायद उसकी कल्पना भी आपने नहीं की होगी।

ओमपुरी की तर्ज पर महेश भट्ट या शेखर कपूर जैसे ट्विटर भक्त किसी भी वक्त ये मांग उठा सकते हैं कि जननायक अन्ना के सम्मान में सरकार स्टांप जारी करे।

अन्ना से प्रभावित फेसबुक फैनक्लब देश में ईमानदारी की अलख जगाने के लिए अब सिक्कों और नोट पर अन्ना की तस्वीर लगाए जाने की मांग रख सकते हैं।

2014 के आमचुनाव और एसेंबली इलेक्शन के वक्त महानगर मुंबई में किसान बाबूराव हजारे मार्ग की मांग सुनने के लिए तैयार रहिए।

अन्ना हजारे के जन्मदिन 15 जून को अन्ना दिवस मनाने की मांग भी उठ सकती है।

अगर अन्ना के मुरीदों की चली तो अन्ना टेक्सटबुक में भी शामिल हो सकते हैं।

बगैर वर्जिश किए 11 दिन में 7किलो वजन कम करने की यूएसपी के साथ डाइटिंग के नए फार्मूले के तौर पर अन्ना अनशन हिट हो सकता है।

 कौन बनेगा करोड़पति की तर्ज पर देश के सबसे ईमानदार शख्स की तलाश अब रियलिटी शोज वाले कर सकते हैं।

मशहूर ऑन लाइन गेम एंग्री बर्ड्स की तर्ज पर  एंग्री अन्ना नाम का गेम आप इंटरनेट पर खेल सकते हैं। नेताओं की मुफ्त मिजाजपुर्सी का ये गेम खासी शोहरत बटोर रहा है।

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

गुलिवर अन्ना और लिलिपुट की सियासत

जोनाथन स्विफ्ट की एक मशहूर कहानी है गुलिवर्स ट्रैवल्स ..1726 में पहली बार प्रकाशित हुआ ये उपन्यास कभी प्रिंट से बाहर नहीं हुआ। ये एक सैलानी की कहानी है जो समंदर से भटक कर 6 इंच के इंसानों की बस्ती लिलिपुट में आ जाता है। इंसानी फितरत पर लिखा गया 385 साल पुराना आयरिश अफसाना अब दिल्ली की हकीकत बन गया है। गुलिवर की जगह अन्ना को और लिलिपुट के बाशिन्दों की जगह सरकार और नौकरशाहों को रखकर देखिए .सिर्फ .ईमानदारी का होना या नहीं होना इंसान के कद को कहां से कहां पहुंचा देता है। दिल्ली पुलिस टीम अन्ना पर कानून तोड़ने के इल्जाम लगा रही है,  फिर भी रामलीला मैदान में मौजूद अवाम अनशन के दसवें दिन अन्ना के दशावतार रुप का नमन कर रही है।  लोकसभा में पहले पीएम फिर नेता प्रतिपक्ष और फिर सदन के इतिहास में पहली बार स्पीकर ने अपनी सीट से उठकर उनसे अपना अनशन तोड़ने की अपील की। ये है लिलिपुट की सियासत में गुलिवर अन्ना की ताकत। सरकार को लगता है कि ये ताकत अन्ना के मकसद की ताकत है, लेकिन अन्ना जानते हैं कि ये ताकत उस भरोसे की है जो उन्हें अवाम पर और अवाम को उन पर है।
सरकार को लगता है कि जो बात उसके आश्वासन से नहीं बनी वो बात संसद की अपील से बन जाएगी, लेकिन अन्ना को यकीन है कि अब वो मैं नहीं.. हम हैं, जनलोकपाल के जननायक के तौर पर वो हम भारत के लोग की आवाज  हैं। और संविधान की प्रस्तावना के अल्फाज रामलीला मैदान से गूंज बनकर  नुमाइंदों तक जाएगी तो उसमें फरियाद नहीं फरमान होगा, अर्चना नहीं गर्जना होगी, याचना नहीं आदेश होगा। ये साल क्रांतियों का साल है। इजिप्ट में चमेली की चिंगारी में मुबारक की सरकार झुलस गई, लीबिया में गदर कामयाब रहा है और सीरिया  में कामयाब होनेवाला है।  हमारे यहां लोकतंत्र है, इसलिए बदलाव की उम्मीद और संभावना यहां सबसे ज्यादा है। सरकार को इल्म हो न हो, अन्ना को पता है कि अवाम की उम्मीदों और बदलाव की संभावनाओं से छेड़छाड़ करने का जोखिम सरकार नहीं ले सकती। 


बुधवार, 24 अगस्त 2011

73 का तिलिस्म

उम्मीद युवाओं से और भरोसा बुजुर्गों पर
 क्या ये महज इत्तेफाक है कि 1942 के आंदोलन के वक्त बापू की उम्र थी 73 साल
 1975 के आंदोलन की वक्त जेपी की उम्र थी 73 साल
और  रामलीला मैदान में अनशन करते अन्ना की उम्र भी है 73 साल
यही नहीं सरकार के संकटमोचक के तौर पर सामने आए प्रणब दादा की उम्र  है 76 साल
बात इतिहास की करें या सियासत की.. जोश की जगह देश ने हमेशा तजुर्बे को ज्यादा अहमियत दी है। परिवार की तरह ही देश को बनाने और संवारने में भी बुजुर्गों की भूमिका हमेशा से अहम रही है। आज भी ज्यादातर घरों में तमाम अहम फैसले बड़े बुजुर्ग ही लिया करते हैं। शायद यही वजह है कि ..आपको रामलीला मैदान में कई ऐसे लोग मिलेंगे जिन्हें कभी अन्ना की खामोशी में तो कभी अन्ना की तल्खी में अपने पिता का अक्स नजर आता है
आपको ऐसे बच्चे मिलेंगे जिन्हें रामलीला मैदान में भाषण देते या फिर आराम करते अन्ना में आज भी खादी की धोती और कुर्ता पहननेवाले अपने दादाजी नजर आते हैं।
भोले अन्ना.. भावुक अन्ना .. जिद्दी अन्ना.. खामोश अन्ना.. दरअसल हमारे परिवार का वो बुजर्ग है जिससे हम चाहकर भी कभी अलग नहीं हुए और अगर कभी उससे दूर हुए भी तो ये दूरी देर तक सालती रही है खलती रही है।  देश और दादा के साथ अवाम का यही नाजुक रिश्ता अन्ना की सबसे बड़ी ताकत है। सियासत को इल्म हो न हो, हकीकत ये है कि हमारे यहां एक ईमानदार बुजुर्ग  न तो कमजोर है और न ही साधारण, क्योंकि वो सिर्फ एक घर का नहीं हर घर का बाशिन्दा है।

द ग्रेट अन्ना शो

कोलकाता के पार्कस्ट्रीट में अन्ना हजारे के समर्थन में स्कूली बच्चों ने एक दिन का उपवास रखा।
श्रीनगर के शेर ए कश्मीर पार्क में पैंथर्स पार्टी के लोग जमा हुए और उन्होंने अन्ना के समर्थन में नारेबाजी की
पटना में  भारी बारिश के बीच कारगिल चौक पर लोगों ने अन्ना के समर्थन में धरना दिया 
तस्वीरें तीन नजारा एक
कोलकाता, श्रीनगर और पटना की तस्वीरें बताती हैं कि अन्ना के साथ स्कूल के बच्चे हैं सियासी पार्टियां हैं और आम लोग हैं। लेकिन ये तस्वीरें सिर्फ इतना ही नहीं बतातीं।
तस्वीरें बताती हैं कि अहमदाबाद से बेंगलुरू तक गोरखपुर से रायपुर तक अन्ना का आंदोलन लोगों को अपनी ओर खींच रहा है। अब सवाल है क्यों। दरअसल अन्ना को पता हो न हो, वो इस वक्त सबसे बड़े शो बन चुके हैं। 120 करोड़ के इस देश में टीवी पर रेडियो पर, फेसबुक पर ट्वीटर पर चौबीसों घंटे जारी है द ग्रेट अन्ना शो । 1998 में आई हॉलीवुड की फिल्म द ट्रूमन शो की तरह का एक ऐसा अनोखा अद्भुत रियलिटी शो जिसके किरदार को भी नहीं मालूम कि वो महज एक शख्स नहीं एक किरदार है जो हजारों कैमरों की रोशनी में दुनिया भर में  चौबीसों घंटे लाइव है। वो नहीं जानता कि वो लाखों लोग जिसे उसने कभी नहीं देखा, और वो लाखों लोग जिनसे वो शायद कभी नहीं मिलेगा उसकी जिन्दगी के एक एक पल को सिर्फ देख और महसूस नहीं कर रहे वो उसे  हर पल  जी रहे हैं। वो नहीं जानता कि उसका सोना खबर है, उसका जागना खबर है। वो नहीं जानता कि वो हर पल खबर बन रहा है, वो हर पल खबर बना रहा है।
देश भर में अन्ना के नाम पर जमा लोगों की ये भीड़ उन लोगों की नहीं है जिन्होने जिन्दगी में रिश्वत न देने की कसम खाली है, ये तस्वीर उन लोगों की है जिनकी रगों में द ग्रेट अन्ना शो हर पल रोमांच भर रहा है। ये तस्वीरें बताती हैं कि हम भारत के लोग सिर्फ क्रिकेट और बॉलीवुड के बारे में एक सी राय नहीं रखते। करप्शन भी हम सबकी साझी याद्दाश्त में रच बस गया है। ये वो रिसता नासूर है जिसकी टीस को महसूस करने के लिए कहीं और जाने की नहीं बस अपनी रूह में झांकना ही काफी है।
द ग्रेट अन्ना शो इस वक्त का सुपरहिट शो है जिसे देखने को ,और इस  शो में किरदार बनने को 55 लाख से ज्यादा लोग बेताब नजर आ रहे हैं।  लेकिन द ग्रेट अन्ना शो के साथ एक परेशानी भी है। ये  शो दरअसल शेर की सवारी कीतरह है जिसमें रोमांच तभी तक है जब तक आप इस पर सवार हैं। यू सर्टिफिकेट वाला ये शो हर कोई देख तो सकता है लेकिन इसे काबू में कोई नहीं कर सकता। दरअसल इस शो को द एंड के लिए तैयार ही नहीं किया गया। इस शो में हैप्पी एन्डिंग की शायद ज्यादा गुंजाइश भी नहीं, न ही द एंड पर  फिर मिलेंगे का वादा है। 

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

युवाओं के ‘अन्ना’

अन्ना के आंदोलन में शामिल लोगों पर नजर डालिए ..इस आंदोलन में सबसे बड़ी तादाद युवाओं की है। नई सुबह का इंतजार करती  देश की आधी आबादी, वो आबादी जिसने आजादी की जंग को देखा नहीं, सिर्फ उसके बारे में सुना है, वो आबादी जिसने इमरजेंसी और जेपी के आंदोलन के बारे में सुना भी है और पढ़ा भी है। तालीम से लैस और सियासत से बेजार, बेसब्र ये पीढी देश में बीते दस साल की तरक्की की उस रफ्तार से भी मुतमईन नहीं जिसका शुमार देश और दुनिया की सबसे तेज तरक्की के तौर पर किया जा रहा है।

 भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की मुहिम से उसे अपने हिस्से की जमीन मिलने की आस बंधी है,  मुट्ठी में आसमान भरने का हौसला मिला है। युवाओं को ख्वाब देखने की आदत होती है,  उन्हें पूरा करने की ताकत भी होती है, अन्ना उसे नई सुबह के लिए इंतजार करने को नहीं कह रहे, वो उसे अपने हिस्से का सूरज उगाना सिखा रहे हैं।


 अगर समूचे देश के युवा अगर अन्ना को उम्मीद की नजर से देख रहे हैं तो इसकी वजह शायद ये है कि आज के युवा को हक और इंसाफ के इंतजार में सारी उम्र गंवाना मंजूर नहीं, उसे रिश्वत और रसूख का नंगा खेल गवारा नहीं, उसे कलमाड़ी और राजा जैसे नुमाइंदे कबूल नहीं.. वो हर ओर नजर दौड़ाता है लेकिन मसीहाओं के इस देश में आज मसीहा के तौर पर  अन्ना के सिवाय उसे कोई नजर नहीं आ रहा।  उसकी नाराजगी उसकी बेबसी और उसकी बेसब्री अन्ना के लिए आस्था में तब्दील होगई है। सरकार को हो न हो, अन्ना को इस भरोसे की ताकत का बेहतर तौर पर अंदाजा है। हकीकत ये है कि आजादी के बाद देश की युवा शक्ति का इस्तेमाल जेपी आंदोलन ने भी किया और वीपी सिंह ने भी, लेकिन 1977 का और 1990 का युवा आज भी छले जाने के एहसास से जूझ रहा है। आज का सबसे अहम सवाल ये है कि क्या अन्ना का आंदोलन कुछ अलग साबित होगा।

बुधवार, 17 अगस्त 2011

अन्ना और इतिहास का आइना

सरकार को अब जाकर एहसास हो रहा है कि कैद में अन्ना नहीं वो खुद है। अब सवाल है कि ऐसा क्या किया अन्ना ने कि सरकार इस कदर त्रस्त और पस्त नजर आने लगी है। तिहाड़ के पास उमड़े जनसैलाब को देखिए और ये सवाल खुद से पूछिए कि  आज कैद में कौन हैं अन्ना या सरकार ?अगर हो सके तो इंडिया गेट जाइए और महसूस करने की कोशिश कीजिए कि  आज लाचार कौन है अन्ना या सरकार ?
हकीकत ये है कि वैसा कुछ नहीं हो रहा जैसासरकार चाहती थी, हकीकत ये है कि  सब कुछ वैसा ही हो रहा है जैसा अन्ना चाहते थे। इस जनसैलाब को देखिए आपको एहसास होगा कि ताकत उस भरोसे में होती है जो अवाम को अपने नुमाइंदे पर होती है।  कल तक ये भरोसा हुकूमत पर था अब अन्ना पर है। अब सवाल ये है कि ऐसा क्या किया अन्ना ने कि उनके कैद होने के बाद से ही वो रिहा और सरकार गिरफ्तार नजर आने लगी। दरअसल अन्ना जानते हैं कि आज के भारत की सामूहिक याद्दाश्त में दो घटनाएं बसी हैं।  एक राष्ट्रीय आंदोलन और दूसरी 1975 की इमरजेंसी। जंग का ताल्लुक अवाम की आजादी से है तो इमरजेंसी का तानाशाही से। आजादी की जंग उन्हें याद दिलाती है कि देश के लिए क्या करना चाहिए , वहीं इमरजेंसी उन्हें याद दिलाती है कि क्या उन्हें हरगिज गवारा नहीं।  ये महज इत्तेफाक नहीं कि अन्ना बार बार देश की दूसरी आजादी की बात करते हैं। वो बार बार तानाशाही की याद दिलाते हैं। अन्ना को इतिहास की आवाज और अवाम के मिजाज दोनों का पता है। अगर  इंडिया गेट या तिहाड़ के गेट के करीब अन्ना के समर्थन में लोगों का सैलाब आपको हैरान कर रहा है तो आपको बता दें कि देश में ऐसा पहली बार नहीं हुआ। देश एक बार फिर 36 साल पुराने इतिहास को दोहरा रहाहै।  अब सवाल ये है कि ..ऐसा क्या किया है अन्ना ने कि लोग उन्हें सुनने को,  उनकी हर  बात मानने को इस कदर बेताब नजर आ रहे हैं।  दरअसल अपने आचरण , अनशन और आंदोलन  से कहीं ज्यादा अपने तेवर से अन्ना लोगों को जेपी की याद दिला रहे हैं। वो अवाम को अपनी ताकत और सरकार को  उसकी कमजोरी का उसी तरह एहसास दिला रहे हैं जैसे 36 साल पहले जेपी ने किया था। जेपी की तरह ही अन्ना लोगों को ये बताने में कामयाब रहे हैं कि ..ताकत सरकार में नहीं अवाम में होती है। अन्ना ने साबित कर दिया है कि ताकत खाकी में नहीं होती लाठी में नहीं होती, खादी में नहीं होती कुरसी में नहीं होती।  अब सवाल ये है कि अन्ना को ये ताकत कहां से मिली। जवाब है देश के इतिहास से, देश की परंपरा से ..आजादी की जंग से। इसे मुकम्मिल तौर पर समझने के लिए हमें इतिहास के दो लम्हों पर गौर करना होगा। पहला वाकया है 1930 का।  12 मार्च 1930 को जब गांधी जी ने नमक आंदोलन शुरु किया तब मसला सिर्फ नमक बनाने का नहीं आजादी हासिल करने का था। एक आने के नमक के लिए कानून तोड़ने का मतलब सिर्फ नमक बनाने का हक हासिल करना नहीं था अंग्रेजी हुकूमत को ये बताना भी था कि जिस कानून की बुनियाद पर आपकी हुकूमत टिकी है उसे मानने से हम पूरी तरह से इनकार करते हैं। दुनिया के किसी भी देश की  आजादी की जंग में अवाम की भागीदारी के लिए इससे मुफीद शायद ही कोई दूसरी मिसाल हो ।
45 साल बाद कुछ ऐसा ही किया जेपी ने। इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले को जब इंदिरा गांधी ने मानने से इनकार कर दिया तब जेपी ने देश के युवाओं को स्कूल कालेज छोड़ने और सरकारी कानून तोड़ने का आह्वान किया।25 जनवरी 1975 के दिन जब  पटना के गांधी मैदान में जेपी ने रामधारी सिंह दिनकर की कविता सिंहासन खाली करो कि जनता आती है का पाठ किया तो उन्हें सुनने के लिए एक लाख से ज्यादा लोग आए थे। उसी शाम इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी का ऐलान कर दिया। 1930 से संजोई और 1942 में इस्तेमाल हुए अवाम की ये ताकत सामने आई तो इंदिरा सरकार को घुटने टेकने पड़े।
दरअसल अन्ना ने जब जनलोकपाल बिल की मांग उठाई तब सरकार को लगा कि ये महज एक विधेयक का मसला है जिसे बातचीत से घुड़की से या धमकी से हल किया जा सकता है। सरकार ये नहीं समझ पाई कि अन्ना की जंग सिर्फ संसद से एक बिल पारित करवाने की नहीं थी, असली मसला था अवाम को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोगों को गोलबंद करना, उन्हें एकजुट करना। 
जब सरकार के मंत्री और प्रवक्ता ये सोच कर खुश हो रहे थे कि उन्होंने अन्ना को कठघरे में खड़ा कर सरकार को जीत दिला दी है तब अन्ना को एहसास था कि सरकार की वजह से  उनके मुरीदों की तादाद में हररोज इजाफा होता जा रहा है।
 अन्ना जानते थे कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी मुहिम जब तक सरकारी और सिविल सोसाइटी के बिल पर जारी विवाद में फंसी रहेगी तब तब उनके साथ जितने लोग होंगे शायद उतने ही उनके खिलाफ भी लेकिन अगर लोकपाल बनाम जनलोकपाल की जंग अन्ना बनाम सरकार में जंग तब्दील हो जाती है तो बाजी पलट जाएगी। और ऐसा ही हुआ । विवादों से परे अन्ना और घोटालों में घिरी सरकार के बीच जब चुनने की बारी आई तो अवाम को अन्ना के पास आना ही था।
सरकार को हो न हो अन्ना को इतिहास का और अवाम की इस ताकत का बेहतर तौर पर पता था, सरकार को इल्म हो न हो वो इसके लिए पहले से तैयार थे, उन्हें गिरफ्तार कर सरकार ने उनकी जीत और अपनी शिकस्त पक्की कर दी।