बुधवार, 17 अगस्त 2011

अन्ना और इतिहास का आइना

सरकार को अब जाकर एहसास हो रहा है कि कैद में अन्ना नहीं वो खुद है। अब सवाल है कि ऐसा क्या किया अन्ना ने कि सरकार इस कदर त्रस्त और पस्त नजर आने लगी है। तिहाड़ के पास उमड़े जनसैलाब को देखिए और ये सवाल खुद से पूछिए कि  आज कैद में कौन हैं अन्ना या सरकार ?अगर हो सके तो इंडिया गेट जाइए और महसूस करने की कोशिश कीजिए कि  आज लाचार कौन है अन्ना या सरकार ?
हकीकत ये है कि वैसा कुछ नहीं हो रहा जैसासरकार चाहती थी, हकीकत ये है कि  सब कुछ वैसा ही हो रहा है जैसा अन्ना चाहते थे। इस जनसैलाब को देखिए आपको एहसास होगा कि ताकत उस भरोसे में होती है जो अवाम को अपने नुमाइंदे पर होती है।  कल तक ये भरोसा हुकूमत पर था अब अन्ना पर है। अब सवाल ये है कि ऐसा क्या किया अन्ना ने कि उनके कैद होने के बाद से ही वो रिहा और सरकार गिरफ्तार नजर आने लगी। दरअसल अन्ना जानते हैं कि आज के भारत की सामूहिक याद्दाश्त में दो घटनाएं बसी हैं।  एक राष्ट्रीय आंदोलन और दूसरी 1975 की इमरजेंसी। जंग का ताल्लुक अवाम की आजादी से है तो इमरजेंसी का तानाशाही से। आजादी की जंग उन्हें याद दिलाती है कि देश के लिए क्या करना चाहिए , वहीं इमरजेंसी उन्हें याद दिलाती है कि क्या उन्हें हरगिज गवारा नहीं।  ये महज इत्तेफाक नहीं कि अन्ना बार बार देश की दूसरी आजादी की बात करते हैं। वो बार बार तानाशाही की याद दिलाते हैं। अन्ना को इतिहास की आवाज और अवाम के मिजाज दोनों का पता है। अगर  इंडिया गेट या तिहाड़ के गेट के करीब अन्ना के समर्थन में लोगों का सैलाब आपको हैरान कर रहा है तो आपको बता दें कि देश में ऐसा पहली बार नहीं हुआ। देश एक बार फिर 36 साल पुराने इतिहास को दोहरा रहाहै।  अब सवाल ये है कि ..ऐसा क्या किया है अन्ना ने कि लोग उन्हें सुनने को,  उनकी हर  बात मानने को इस कदर बेताब नजर आ रहे हैं।  दरअसल अपने आचरण , अनशन और आंदोलन  से कहीं ज्यादा अपने तेवर से अन्ना लोगों को जेपी की याद दिला रहे हैं। वो अवाम को अपनी ताकत और सरकार को  उसकी कमजोरी का उसी तरह एहसास दिला रहे हैं जैसे 36 साल पहले जेपी ने किया था। जेपी की तरह ही अन्ना लोगों को ये बताने में कामयाब रहे हैं कि ..ताकत सरकार में नहीं अवाम में होती है। अन्ना ने साबित कर दिया है कि ताकत खाकी में नहीं होती लाठी में नहीं होती, खादी में नहीं होती कुरसी में नहीं होती।  अब सवाल ये है कि अन्ना को ये ताकत कहां से मिली। जवाब है देश के इतिहास से, देश की परंपरा से ..आजादी की जंग से। इसे मुकम्मिल तौर पर समझने के लिए हमें इतिहास के दो लम्हों पर गौर करना होगा। पहला वाकया है 1930 का।  12 मार्च 1930 को जब गांधी जी ने नमक आंदोलन शुरु किया तब मसला सिर्फ नमक बनाने का नहीं आजादी हासिल करने का था। एक आने के नमक के लिए कानून तोड़ने का मतलब सिर्फ नमक बनाने का हक हासिल करना नहीं था अंग्रेजी हुकूमत को ये बताना भी था कि जिस कानून की बुनियाद पर आपकी हुकूमत टिकी है उसे मानने से हम पूरी तरह से इनकार करते हैं। दुनिया के किसी भी देश की  आजादी की जंग में अवाम की भागीदारी के लिए इससे मुफीद शायद ही कोई दूसरी मिसाल हो ।
45 साल बाद कुछ ऐसा ही किया जेपी ने। इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले को जब इंदिरा गांधी ने मानने से इनकार कर दिया तब जेपी ने देश के युवाओं को स्कूल कालेज छोड़ने और सरकारी कानून तोड़ने का आह्वान किया।25 जनवरी 1975 के दिन जब  पटना के गांधी मैदान में जेपी ने रामधारी सिंह दिनकर की कविता सिंहासन खाली करो कि जनता आती है का पाठ किया तो उन्हें सुनने के लिए एक लाख से ज्यादा लोग आए थे। उसी शाम इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी का ऐलान कर दिया। 1930 से संजोई और 1942 में इस्तेमाल हुए अवाम की ये ताकत सामने आई तो इंदिरा सरकार को घुटने टेकने पड़े।
दरअसल अन्ना ने जब जनलोकपाल बिल की मांग उठाई तब सरकार को लगा कि ये महज एक विधेयक का मसला है जिसे बातचीत से घुड़की से या धमकी से हल किया जा सकता है। सरकार ये नहीं समझ पाई कि अन्ना की जंग सिर्फ संसद से एक बिल पारित करवाने की नहीं थी, असली मसला था अवाम को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोगों को गोलबंद करना, उन्हें एकजुट करना। 
जब सरकार के मंत्री और प्रवक्ता ये सोच कर खुश हो रहे थे कि उन्होंने अन्ना को कठघरे में खड़ा कर सरकार को जीत दिला दी है तब अन्ना को एहसास था कि सरकार की वजह से  उनके मुरीदों की तादाद में हररोज इजाफा होता जा रहा है।
 अन्ना जानते थे कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी मुहिम जब तक सरकारी और सिविल सोसाइटी के बिल पर जारी विवाद में फंसी रहेगी तब तब उनके साथ जितने लोग होंगे शायद उतने ही उनके खिलाफ भी लेकिन अगर लोकपाल बनाम जनलोकपाल की जंग अन्ना बनाम सरकार में जंग तब्दील हो जाती है तो बाजी पलट जाएगी। और ऐसा ही हुआ । विवादों से परे अन्ना और घोटालों में घिरी सरकार के बीच जब चुनने की बारी आई तो अवाम को अन्ना के पास आना ही था।
सरकार को हो न हो अन्ना को इतिहास का और अवाम की इस ताकत का बेहतर तौर पर पता था, सरकार को इल्म हो न हो वो इसके लिए पहले से तैयार थे, उन्हें गिरफ्तार कर सरकार ने उनकी जीत और अपनी शिकस्त पक्की कर दी। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें